गुरुवार, 11 सितंबर 2014

गिरफ्त

                गिरफ्त
शहर की गुमनाम सी एक गली में छत पे किराये वाले २ कमरों के मकान में रहती थी| सभी मकान इतने सटे थे मानो लोकल सिटी बस के सवारी हो ,वो जनाब बस पड़ोस के छत पे ही रहते थेजब भी मैं कपडे सुखाने आती चोरी छुपे नज़रों से देख ही लिया करती... ये सोचते-सोचते की क्या  ये कभी मुझे देखता होगा?  ..देखे तो भी क्या मुझे कौन सा प्यार-व्यार है, अल्लाह बचाए कभी इसने बात करनी चाही तो,वैसे  अक्सर घर तो आता है जरुर ये भी बहाने से आता होगा ...और बात कर भी ली तो ऐटीटूड देखा दूंगी जता दूंगी मैं नहीं मर रही बात करने को वो तो बस नज़र चली जाती है |"
     और एक दिन जनाब ने मेरी चोरी पकड़ ही ली थी कि माँ ने आवाज़ लगा दी ऐसे भागी जैसे उसकी नज़रों में गिरफ्त नहीं होना चाहती थी, पर मन अब भी वहीँ था काश वो जाने से रोक लेता नाम ही पूछ लेता "तुम्हारा नाम आयत है ना जानता हूँ; तुम्हें"..रोकते तो रुक जाती हमेशा के लिए कभी भी चोरी छुपे देखने नहीं देखती फिर ..
    पर अब इतने बरस बाद वो जनाब ना जाने कहाँ किधर किसका चैन-ओ-सुकून छीन रहे होंगे और मैं आज किसी और की नज़रों मैं गिरफ्त हूँ| उम्र कैद  की सज़ा जो मिली थी मुझे हमारे यहाँ शादी कहते हैं उसे, आज भी वैसी ही एक गुमनाम गली एक एक मकान में हूँ, छत भी है पर मेरी नहीं पति के मकान की जिसे मैं  घर बना रहीं हूँ |
तरन्नुम