सोमवार, 18 मार्च 2013

अनकही -2


   अनकही -2
    दिल तो ये मनाली का भी जानता था की कभी न कभी निमित उसे फोन जरुर करेगा पर उम्मीद कम ही थी ..बड़ी हिच्किचाहट से फ़ोन उठाया मनाली ने “हेलो”.. “मनाली हाय हैप्पी न्यू इयर”.. “आज कैसे फ़ोन किया क्या हुआ कुछ रहगया था क्या कहना सुनना” मनाली ने जान भूझ कर कठोरता से बात की | “नहीं मनाली विश करने के लिए फ़ोन किया था”.. “हम्म तुमको भी हैप्पी न्यू इयर”.. “मनाली बीते साल मैं जो कुछ भी किया मुझे उसका पश्चाताप है माफ़ी मांगना चाहता था ई एम् सॉरी फॉर आल”.. “अब क्या मतलब है इन सब का निमित सब कुछ तो ख़त्म हो गया है रही क्या गया है...और माफ़ी वगेरा मांगने का ये कौन सा समय है..” “सुन देख मुझे नहीं पता तुझे मेरा फोन करना सही लगा या नहीं पर मुझे लगा की मुझे तेरे से माफ़ी मांगनी चाहिये”.. मनाली को गुस्सा आया मन ही मन में बोलने लगी “बोल तो ऐसे रहा है जैसे एहसान करने के लिए फ़ोन किया हो”.. पर वो जानती थी की ये हमेशा से ऐसे ही रहा है कभी नहीं सुधरेगा आखिर 4 सालों से जानती हूँ एक वक़्त था जब हम दोस्त हुआ करते थे पक्के वाले वो भी हर बात एक दुसरे से कहते थे अरे इस भुधू को लड़कियां पटाने के टिप कौन\ देता था तो क्या इतना भी नहीं जानुंगी इससे.. “हाँ ठीक है वैसे भी मैं कोई नया ड्रामा नहीं खड़ा करना चाहती हूँ बहुत खुश हूँ मैं इसलिए नहीं की तुमने फोन किया इसलिए की मेरी सहेली की शादी है ..” “अच्छा कौन वही जिसने मुझे इतनी डांट लगाईं थी” निमित ने मनाली का मूड बदलना चाहा .. “हाँ हाँ वही पता है फेरे चल रहे हैं”.. चाय का प्याला पकडे हरे पिस्ते रंग की साडी में लिपटी साल की सबसे सर्द रातों में वो मैरीज गार्डन मेंलगे मंडप के पास कड़ी बात करने लगी |
     “तो अब अपनी आदतें सुधारी है या वैसे ही हो अब तक”.. “कहाँ तुझे लगता है मैं बदलूँगा”.. “न लक्षण तो नहीं दिखते एक मिनिट आज तो 31 फर्स्ट की रात है ना और तुम अपनी पार्टी में नहीं गए”.. “नहीं वो ऐसे ही.... सोचा आज नया साल तेरे साथ बिताऊ”... इतना कहा ही था की फेरों में बैठी सहेली ने एसा भाव दिया की मनाली निमित की बात कटते हुए बोल उठी “अच्छा सुनो सुनो मुझे ना जाना है मेरी फ्रेंड बुला रहे है मैं जल्दी ही टाइम मिलते ही फ़ोन करुँगी तुम वैसे भी जगे हुए हो”...”हाँ रे तू जा आराम से मेरी तरफ से विश करना और..” और तो वो कुछ कहता पर मनाली जल्दी में फ़ोन रख चुकी थी ... नए साल की वो रात न जाने इन दोनों किओ जींदगी में क्या नया लेकर आई थी वो रात कोई नहीं जानता था ..| आज भी वो हजारों मील दूर थे मिले नहीं थे पर एक दुसरे को ऐसे जानते थे जैसे जन्मों जन्मों का साथ रहा था उनका , सहेली की विदाई हो गई अकेली रह गई थी मनाली और उसके चन्द किस्से ओ किसे सुनती अब उसे अपने आपकी सहेली बनना था|
      अगले दिन सुबह एक नया दिन नया साल शायद नए जीवन की शुरुआत ...आखीर मनाली ने फ़ोन किया “तो मैडम हो गई शादी हाँ तो तू कब कर रही है”.. मेरी शादी मैं वक़्त है निमित पता नहीं होगी या नहीं... अच्छा वैसे तुम कब कर रहे हो”... “तू हाँ कर दे तो अभी कर लूँग”...ये क्या कह गया था निमित क्या मजाक था क्या था क्या ये मन में ख़ुशी थी पर गुस्सा भी ये भी ना क्यों ऐसी बात कह जाता है की ये मन बहक जाए और दुनिया भर का जो गुस्सा होता है सब हवा कर देता है ...एक दिन मैंने कहा “निमित पापा मम्मी मेरी शादी की बात कर रहे थे”.. इतना कहा ही था की निमित को  गुस्सा आया और कहा “चुप एक दम चुप कुछ और बोल”...ये तो नहीं सोचा था मैंने क्या ये प्यार था जो वो अपने अन्दर दबा रहा था या कुछ और आज तक मैं समझ नहीं सकी हूँ
   दिन बित ते गए कभी कभी बात कर ते हम कभी पुराने दिनों की तरह ऑनलाइन ही बड़ा अजीब सा रिश्ता हो चला था हमारा,.. अब पुराने दोस्त थे  हम वही जैसे 4 साल पुराने थे एक अलग रूमानियत थी एक दुसरे की परवाह तो थी पर फॉर्मेलिटी भी तीखी मिर्च की तरह कूट कूट के भरी हुई थी | दोनों न आगे बढ़ पाए न मुड पाए थम सा गया था पल एक अनकही ख़ामोशी थी जो कुछ कहना चाहती थी एक दूजे से मनाली छोड़ न पुरानी बात को चल एक हो जायँ... निमित चलो न कहीं दूर दुनिया बसा लें थोड़ी नौक झोंक ढेर सारा प्यार और बस तुम और मैं.... पर अब हालत वो कहाँ थे हम तो नस साथ रहना कहते थे एक दूजे को समझना चाहते थे चाहे हमसफ़र की तरह या दोस्त की तरह कम से कम एक साथ तो थे .....
                                                 -तरन्नुम

शुक्रवार, 8 मार्च 2013

मैं नारी हूँ ....

मैं नारी हूँ ...
मैं हवा हूँ  मनचली हूँ,
मैं पानी हूँ जीवन हूँ ,
मैं महक हूँ सुकून हूँ,
मैं चंचल हूँ लहेक हूँ ,
मैं उदासी हूँ विडम्बना हूँ,
मैं सोच हूँ ज्ञान हूँ ,
मैं खूबसूरती हूँ मुस्कान हूँ,
मैं राह हूँ दिशा हूँ,
मैं लौ हूँ उजाला हूँ,
मैं शक्ति हूँ आदि हूँ,
मैं ममता हूँ माँ हूँ,
मैं सखी हूँ प्रेरणा हूँ,
मैं सवाल हूँ प्रमाणित हूँ,
मैं निर्मल हूँ कोमल हूँ ,
मैं अन्नपूर्णा हूँ अखंड हूँ,
मैं परिणीता हूं प्रेम हूँ ,
मैं स्रष्टि हूँ  सदेव हूँ 
 मैं चमक हूँ माया
                                 मैं धन हूँ लक्ष्मी हूँ
                                 मैं दुर्गा हूँ विनाश हूँ  
                                मैं नारी हूँ मैं नारी हूँ......    

सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

ankahi


अनकही-1
असलीयत में वो चाहता क्या था ६-७ महीनों से मैं ये समझ नहीं पा रही थी ,हजारों मील दूर था वो दोस्ती तो नाम मात्र की रह गई थी तो क्योँ वो रह रह कर किसी सुहानी हवा के झोंके की तरहां बार बार मेरे दर पर दस्तक देता था मिलना कुछ था नहीं कुछ महीनों के रिश्ते मैं एक दुसरे को देखा तक नहीं सिर्फ समझने की कोशिश मैं दोस्ती जैसा खुबसूरत सा रिश्ता तो पहले ही ख़त्म कर चुके थे .
निमित तो पहले ही स्पष्ट कर चूका था की अगर एक साफ़ सुथरे रिश्ते के अलावा कोई और रिश्ता रखना होता तो क्या उसके शहर में लड़कियों की कमी तो नहीं थी फिर क्यूँ वो मुझ जैसी लड़की को अपने हमसफ़र समझना चाहता है ,ऐसी लड़की जिसे कोई प्यार तो दूर देखना भी पसंद नहीं करता ,वो हमेशा कहता था मनाली मैं भी नहीं जानता की तेरे मैं वो न जाने क्या बात है जो तू मेरे दिल दिमाग से जाती ही नहीं कितनी कोशिशें की तू सोच जरा समझ मैं नहीं रह सकता तेरे बिन मैं नहीं रह सकता , तुनेना जाने क्या जादू कर रखा है ....हुह जादू जो सिर्फ भ्रम होता है आँखों का ,मनाली के लिए सब पहली बार था कभी कभी लगता की ये सिर्फ मुझे बहलाने फुसलाने के लिए तो नहीं , 4 महीनों से जब से दोनों ने अपना पल दो पल का साथ छोड़ा तब से मनाली का दिल कुछ कहता और दिमाग कुछ और समझता और ये जायज भी था निमित की भी तो हरकतें कुछ और हरकत पेश होती और ज़बान न जाने क्या कहना चाहती थी 4 महीने पहले जब वो अलग हुए तो मनाली के लिए तो दुनिया संसार ख़त्म होने जैसा था ,निमित का तो हाल क्या था वो जानना तो चाहती थी फिर २ पल मैं ही अपने आप से कह देती भाड़मैं जाए हाल अच ही होगा आखिर मेरा से उसका पीछा तो छुट ही गया अब तो और जश्न मन रहा होगा अपने दोस्तों संग नयी हमसफ़र के संग पर ये तो उसका दिल नहीं बोल रहा था दिल को तो वो बेजान समझने लगी थी जो सिर्फ उसे जीने मैं मदद कर रहा था ये जीना क्या जीना था . एक निमित ही तो था जो उसे समझता था उसके अलावा था ही कोण और अब तो वो भी नहीं था ,कुछ दिन बाद पता चला की वो उसके शहर से गुजरा था वो दिन कोई और नहीं पर उनके रिश्ते की पहली सालगिरह का था जो मनाली के लिए बेहद मायने रखता था वो बेचारी चाह कर भी कुछ नहीं कर सकती थी आखिरी बार निमित ने ये जो कह दिया था की वो अब कभी बात नहीं कर पायेगा उससे ,कभी कभी मुझे लगता की हमारा रिश्ता ख़त्म हुआ तो वो मेरी गलतियों के कारण मैंने सेकड़ों बार पुचा था निमित से की मेरी गलती तो बताओ तो वो बस ये कह देता न तेरी कोई गलती नहीं है रे बस हम इतने दूर हैं कैसे चलेगा ये रिश्ता मैं कहती दूर कहाँ हैं हम सिर्फ ये कुछ हज़ार फासले तो तय नहीं करेंगे न हमारे रिश्ते की दुरी को हमारा मन तो करीब है न पर सब सिर्फ कह देने भर से क्या होता है गलत तो निमित भी नहीं था कोण हाँ भरता ऐसे रिश्ते को मैं पापा मम्मी से बोल भी देती पर लड़का जब सामने लाना होता तो क्या कहती की आज तक मैंने एक झलक भी नहीं देखी है ,पागलपन होता मेरा ..,मैं छाती थी चलो कमसे कम वो एक दोस्त की तरह भी तो रह सकता था मेरी ज़िन्दगी में पर मुमकिन नहीं था ऐसा निमित का मानना था खैर. खैर अब मैं बीते समय को एक सबक की तरह लेती हूँ , शायद ये मेरी समझदारी है ,दिन बीत ते चले और मनाली ने अपने को पढाई और काम मैं झोंक दिया ठान ली थी उसने बहुत बड़ा बन न है साथ ही दिल के किसी कोने में बेठी उम्मीद हर सुबह और दिन ढलने पर ये कहता की वो आयेगा मेरे ज़िन्दगी मे ...पता नहीं उसका दिल सही था या गलत वो तो दिन रात अपने आप को कोसती..
    आज मनाली खुश थी उसकी सब से खास सहेली का अपनी नयी दुनिया में जाने का दिन था वो भी नए साल मैं और इसी के साथ वो पुरानी यादों को बीते साल के साथ भुला देना चाहती थी अभी 2 फेरे हुए ही थे की अचानक फ़ोन बजा मैंने सोचा मम्मी होगी पूछ रही होगी की मैं सही सलामत हूँ की नहीं अब रात बिरात का मामला था तो ज़ाहिर सी बात थी पर ये क्या निमित का फ़ोन ये तो उम्मीद ही न थी मनाली को ......
(आगे का किस्सा शेष भाग में ....)